Saturday 10 December 2011

किसकी सुनूँ - इंसानियत या ड़र ?


     २०-२५ साल पहले की घटना है. अपने कार्यालय के कार्य से मुझे गुड़गाँव जाना था. उस समय का गुड़गाँव आज की तरह विकसित नहीं, बल्कि एक छोटा सा शहर था. मैं शिवाजी स्टेड़ियम (दिल्ली) से बस पकड़ कर गुड़गाँव गया और उसी दिन कार्य समाप्त करके शाम को ४ बजे के करीब स्थानीय बस अड्डा पहुंचा. वहाँ मैंने टिकट खिडकी पर विभिन्न स्थानों को जाने वाली बसों के बारे में पढ़ा तो मुझे ‘वजीरपुर’ लिखा दिखाई दिया. मैं दिल्ली में पीतमपुरा में रहता था और वजीरपुर वहां से बिलकुल पास ही था, इसलिये मैंने वजीरपुर का टिकट लिया और बस में बैठ गया. बस के चलने के करीब एक घंटा बाद भी मुझे जब मुझे आसपास कोई आबादी के लक्षणों की बजाय खेत ही दिखाई देते रहे तो मैंने सहयात्री से पूछा कि वजीरपुर अभी कितनी दूर है. जब उसने बताया कि वजीरपुर तो निकल गया, तब मैंने कहा कि अभी तक दिल्ली शहर की आबादी तो आयी ही नहीं. उसने जवाब दिया कि यह बस दिल्ली नहीं जाती बल्कि वजीरपुर गाँव जो हरियाणा में है वहां होकर जाती है. उसने मुझे सुझाव दिया कि अगले बस स्टॉप पर उतर कर, दूसरी बस ले कर वापिस गुड़गाँव जाऊं और वहां से दिल्ली की बस ले लूं. मैं अगले बस स्टॉप पर उतर गया और आसपास बिलकुल सुनसान इलाका दिखाई दिया. दिसंबर का महिना होने के कारण ठण्ड बहुत थी और बिलकुल अंधेरा हो चुका था. बस जिस सड़क पर जा रही थी वह कोई बड़ा हाइवे नहीं था और कोई वाहन भी सड़क पर चलते नहीं दिखायी दे रहे थे. करीब १ किलोमीटर दूर एक छोटे से गाँव की कुछ बत्तियाँ टिमटिमा रहीं थीं. बस स्टॉप पर कोई दुकान वगैरह भी नहीं थी. वहां से गुजरते हुए एक व्यक्ति से पूछने पर पता चला कि ८ बजे के करीब एक बस गुडगाँव के लिये आती है पर उसका आना पक्का नहीं, कई बार वह नहीं भी आती और उसके बाद कोई बस नहीं है. वह मोबाइल फोन या पी सी ओ का जमाना नहीं था और उस सुनसान जगह से कार्यालय या परिवार को सूचित करने का भी कोई साधन नहीं था. जैसे जैसे अँधेरा बढ़ रहा था और इक्का दुक्का लोगों का आना जाना भी कम होता जा रहा था, वैसे वैसे मेरी चिंता बढ़ती जा रही थी.
     
     अचानक गाँव की तरफ से एक कार आती दिखाई दी और जब मैंने उन्हें हाथ दिखाया तो उन्होंने कार रोक दी. पूछने पर उन्होंने बताया कि वे गुड़गाँव जा रहे हैं. यद्यपि कार में पहले से ही चार व्यक्ति बैठे थे, लेकिन जब मैंने उन्हें अपनी समस्या बतलाई तो उन्होंने मुझे कार में बैठ जाने को कहा. मैंने उन्हें गुड़गाँव में कहीं भी उतार देने के लिये कहा लेकिन उन्होंने मुझे बस स्टैंड तक छोड़ा. मैं जल्दी जल्दी में उन्हें ठीक तरह से धन्यवाद भी न दे पाया. लेकिन उनके द्वारा उस समय दी गयी सहायता मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ. इस घटना ने मेरे मन मष्तिष्क पर सदैव के लिये एक अमिट याद छोड़ दी और सोचने लगा कि मैं भी इसी तरह किसी ज़रूरतमन्द की सहायता करके इस अहसान का कुछ अंश चुकाने की कोशिश करूंगा और कुछ वर्षों तक मेरा यह प्रयास भी रहा॰
     
     लेकिन परिस्थितियाँ हमेशा एक सी नहीं रहतीं और आज के हालात के बारे में जब सोचता हूँ तो बहुत दुःख होता है. आजकल, विशेषकर दिल्ली और उसके आसपास, यह समाचार आम हो गये हैं कि किसी व्यक्ति या लड़की ने कार में लिफ्ट माँगी और कार में बैठने पर उस व्यक्ति को लूट लिया या उसकी हत्या कर के गाड़ी ले कर भाग गये. अब तो पुलिस भी अनजान आदमी को लिफ्ट न देने की सलाह देती है. ऐसे हालात में सच में मुसीबत में फंसे व्यक्ति को भी हम चाहते हुए सहायता नहीं कर पाते, क्योंकि सच और झूठ का अंतर करना बहुत मुश्किल हो जाता है.
     
     आज श्री सुदर्शन जी की प्रसिद्ध कहानी ‘हार की जीत’ जो स्कूल में पढ़ी थी याद आती है, जिसमें बाबा भारती का प्रिय घोड़ा जब डाकू खड़ग सिंह धोके से अपाहिज बनकर ले जाता है तो वे उससे कहते हैं कि यह बात किसी को बताना नहीं क्यों कि लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन दुखियों पर विश्वास नहीं करेंगे. इस बात पर एक डाकू का ह्रदय भी बदल जाता है. कहानी का सन्देश कितना सटीक और सच था, इसे आज हम अपनी आँखों से देख रहे हैं. जो व्यक्ति आप से सहायता मांग रहा है, वह हो सकता है सच में किसी परेशानी में हो, लेकिन जब दिन प्रति दिन कार में लिफ्ट मांग कर बदमाशों द्वारा लूटे जाने की घटनाएँ पढते हैं तो मन एक अनिश्चय की स्तिथि में आ जाता है और अधिकांशतः हम अपनी आँख मूँद लेना ही बेहतर समझते हैं. आज के लुटेरों से खड़ग सिंह की तरह संवेदनशीलता की आशा व्यर्थ है.
     
     जब भी किसी को, विशेष कर रात्रि के समय, सड़क पर लिफ्ट माँगने के लिये हाथ उठाते देखता हूँ, तो हर बार मुझे दी गयी सहायता की घटना आँखों के सामने आ जाती है और पैर स्वतः ब्रेक पेडल पर पड़ने को तत्पर हो जाते हैं, लेकिन मन की आवाज को दबा कर मैं बिना उस ओर ध्यान दिए तेजी से आगे निकल जाता हूँ, यद्यपि रास्ते भर मुझे उसकी सहायता न करने का अफ़सोस रहता है और सोचने लगता हूँ कि अगर मुझे भी उस समय लिफ्ट नहीं मिली होती तो मैं कितनी बड़ी परेशानी में फंस जाता. आप ही बतायें कि क्या मैं गलत हूँ ?

Tuesday 22 November 2011

हमारी सम्वेदना और सहनशीलता क्यों मर रही हैं ?


     बचपन से हमें सिखाया जाता रहा है कि संवेदनशीलता और सहनशीलता सफल जीवन के मूल मन्त्र हैं. हमारे सभी प्राचीन ग्रन्थ और सभी धर्म सहनशीलता और सहअस्तित्व का महत्व बताते रहे हैं. लेकिन आज हम जब अपने चारों ओर नज़र डालते हैं तो देखते हैं कि हम अपने व्यक्तिगत, सामाजिक और धार्मिक जीवन में कितने असंवेदनशील और असहिष्णु होते जा रहे हैं.
     
     सड़क पर गाड़ी को ओवर टेक करने के लिये जगह न देने पर दूसरी कार के ड्राईवर से झगडा करना और फिर गोली मार देना, दो गाड़ियों का हलके से छू जाने पर भी गाली गलौज और फिर एक दूसरे पर हथियारों से हमला, ये समाचार आजकल लगभग प्रतिदिन पढने को मिल जाते हैं. एक दो दिन पहले ही समाचार पत्र में था कि एक व्यक्ति की गाड़ी से दूसरे व्यक्ति की गाड़ी को मोडते समय कुछ खरोंच लग गयी तो उसने अगले चौराहे पर उस पर गोली चला दीं और एक गोली उसके ज़बडे में लगी और उसकी हालत चिंता जनक है. दूसरी घटना में एक चालक द्वारा गाड़ी पीछे करते हुए उसकी गाड़ी दूसरी गाड़ी के बम्पर से टकरा गयी और इसके बाद झगड़ा बढने पर एक व्यक्ति ने हवा में गोलियाँ चला दीं. आज से २० साल पहले सड़क पर गाड़ी चलाते समय दूसरे व्यक्तियों के अधिकारों के प्रति सहनशीलता और सौहार्द्य का भाव और यातायात नियमों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति की एक स्वाभाविक प्रवृति थी और road rage जैसे शब्दों से शायद सभी अनजान थे. यह सही है कि आज वाहनों की संख्या बढने से सडकों पर वाहनों की भीड़ ज्यादा हो गयी है, लेकिन बढती हुई दुर्घटनाओं और road rage का केवल यही कारण नहीं है. आज तो बुजुर्ग और शरीफ़ आदमियों को इस तरह की घटनाओं को देख कर दिल्ली में सड़क पर गाड़ी चलाते हुए हर समय एक भय और आशंका बनी रहती है.

     सड़क पर अगर दुर्घटना में घायल व्यक्ति तड़प रहा हो तो उसे देखने तमाशबीनों की भीड़ तुरंत लग जाती है. दो पहिया वाहन चालक अपना वाहन एक तरफ रोक कर उसे देखते हैं और कुछ देर में अपने रास्ते चल देते हैं. कारें पास से दौडती हुई चली जाती हैं और किसी में यह इंसानियत का भाव पैदा नहीं होता कि रुक कर उसे अस्पताल पहुंचा दें. समय का अभाव, गाड़ी का गंदा हो जाने या पुलिस के चक्करों में पडने का डर ऐसे प्रश्न नहीं जिनका ज़वाब एक व्यक्ति की ज़िंदगी से ज्यादा हो. एक घायल व्यक्ति समय पर चिकित्सा न मिलने से अधिकांशतः सड़क पर दम तोड़ देता है और हमारी संवेदनशीलता भी उसी के साथ मर जाती है.
     
     पहले आस पडौस एक बड़े परिवार की तरह माना जाता था. बुजुर्गों की इज्ज़त और छोटों से स्नेह एक आम बात थी. सभी एक दूसरे के दुःख सुख में शामिल होने को सदैव तैयार रहते थे. कितना अच्छा लगता था जब पत्येक व्यक्ति को एक रिश्ते से संबोधित किया जाता था. लेकिन आज महानगरों में पडौस के व्यक्ति के बारे में जानना तो बहुत बड़ी बात है, पडौस में कोई मकान या फ्लैट नंबर किधर पड़ेगा यह तक नहीं बता पाते. सभी एक दूसरे से अनजान अपनी अपनी दुनियां में जी रहे हैं. किसी को एक दूसरे के सुख दुःख का कुछ पता नहीं. कुछ समय पहले दिल्ली में दो बहनों की महीनों घर में भूखे और बीमार होने पर भी पडौस में किसी को कुछ पता न होना हमारी संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है. इस प्रेम और सहनशीलता के अभाव में छोटी छोटी बातों पर झगड़ा होना भी एक आम बात है.

     पडौस की बात तो बहुत दूर, एक परिवार में भी हम एक दूसरे की भावनाओं से कितने अनजान हो गये हैं. सभी अपनी ज़िंदगी स्वतंत्र रूप से जीना चाहते हैं जिसमें परिवार के अन्य संबंधों का कोई स्थान नहीं है. आज के परिवार के बुज़ुर्ग आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हुए भी अपने आप को कितना अवांछित, तिरस्कृत और अकेला पाते हैं. उन्हें केवल प्यार और सम्मान की ज़रूरत है और आज की पीढ़ी उन्हें इतना भी देने को तैयार नहीं. जो बुज़ुर्ग आर्थिक रूप से बच्चों पर निर्भर हैं उनके बारे में तो कल्पना करके ही रूह काँप उठती है. पति पत्नी के संबंधों में असहनशीलता और असंवेदनशीलता उनके बीच बढ़ते हुए तनाव और तलाक का एक प्रमुख कारण बनती जा रही है. हम जितने ज्यादा शिक्षित और समृद्ध होते जा रहे हैं उतने ही अपने संबंधों के प्रति असंवेदनशील और असहिष्णु होते जा रहे हैं. 


     इस बढती हुई असंवेदनशीलता और असहिष्णुता के अनेक कारण हैं, जिनको हम जानते हुए भी अनजान बन रहे हैं. संयुक्त परिवारों के टूटते जाने के कारण आज हमारे बच्चे नैतिक मूल्यों से वंचित होते जा रहे हैं. बाल दिवस के अवसर पर एक कार्यक्रम देख रहा था जिसमें एक बच्ची से पूछा गया कि उसे कौन सा विषय सबसे खराब लगता है तो उसका ज़वाब था Moral Studies (नैतिक शिक्षा). जिस समाज में बच्चों की शुरू से यह सोच हो, उस समाज के भविष्य का स्वतः अनुमान लगाया जा सकता है. माता पिता अपने कार्यों में व्यस्त रहने की वजह से बच्चों के चारित्रिक विकास की ओर कोई ध्यान दे नहीं पाते, और बच्चे कार्टून और टीवी से जुड कर रह जाते हैं.

     आज समाज में किसी व्यक्ति का स्थान उसके ज्ञान, चरित्र से नहीं, बल्कि धन और पद के आधार पर मूल्यांकित किया जाता है, चाहे वह उसने किसी भी गलत ढंग से प्राप्त किया हो. नव-धनाड्यों का क़ानून और नियमों के प्रति अनादर और यह सोच कि पैसे से सब कुछ कराया जा सकता है, राजनीती का गिरता हुआ स्तर और कानून व्यवस्था में उनका बढता हुआ हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार और लचर कानून आदि ने दूसरों के अधिकारों के प्रति असहनशीलता और असंवेदनशीलता को बढ़ावा देने में बहुत बड़ा योगदान दिया है. किसी भी तरह पैसा कमाने की भागदौड ने आज व्यक्ति की संवेदनशीलता को कुचल दिया है.

     आज हम भौतिक सुविधाएँ और धन कमाने के चक्कर में अपनी संस्कृति और संस्कारों को भूलते जा रहे हैं और पता नहीं यह हमारी अगली पीढ़ी और समाज को कहाँ ले जाएगा. पंकज उधास की गायी हुई एक बहुत मर्मस्पर्शी गज़ल ‘दुःख सुख था एक सबका’ तीन पीढ़ियों की सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था और सम्वेदनाओं की बदलती हुई स्तिथि का बहुत सटीक और मर्मस्पर्शी चित्रण करती है. आज की अवस्था का चित्रण करती ये पंक्तियाँ दिल को छू जाती हैं :
       अब मेरा दौर है ये, कोई नहीं किसी का.
       हर आदमी अकेला, हर चेहरा अज़नबी सा.
       
       आंसू न मुस्कराहट, जीवन का हाल ऐसा,
       अपनी खबर नहीं है, माया का जाल ऐसा.
       
       पैसा है, मर्तबा है, इज्ज़त बिकार भी है,
       नौकर है और चाकर, बंगला है कार भी है.
       
       ज़र पास है, ज़मीं है, लेकिन सुकूं नहीं है,
       पाने के वास्ते कुछ, क्या क्या पड़ा गंवाना.

Friday 7 October 2011

रावण अभी भी जीवित है


सम्पूर्ण देश में कल बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक विजयादशमी का उत्सव मनाया गया और बुराई के प्रतीक रावण का पुतला बड़े उत्साह से जलाया गया. सारा देश श्री भगवान राम के जय घोष से गूंज रहा था.

आज सुबह समाचार पत्र में एक समाचार पढ़ कर मन क्षुब्ध होगया और लगा कि हमारी सोच कि हमने बुराई पर विजय पा ली है कितनी गलत है. रावण के पुतले का जलते समय अट्टाहास कानों में गूंजने लगा, कि मेरा पुतला जलाने से क्या फायदा में तो तुम्हारे बीच अब भी जीवित हूँ. दिल्ली में रावण दहन देखने के पश्चात दो लड़कियां अपने भाई के साथ लौट रहीं थीं तब एक गाड़ी में जा रहे कुछ लड़कों ने लड़की से छेड़छाड़ की और उसे गाड़ी में खीचने के कोशिश की. लड़की  के शोर मचाने पर लड़की के भाई और कुछ राहगीरों ने लड़कों को पकड़ कर पुलिस को सौंप दिया.

यह घटना एक बहुत गंभीर प्रश्न उठाती है कि हमारे प्राचीन उत्सवों को मनाने के पीछे जो भावना और उद्देश्य थे उन सब को भुलाकर क्या हम उन्हें केवल मौज मस्ती मनाने का अवसर बना कर रह गये हैं? उन उत्सवों को मनाने के पीछे जो सामाजिक उद्देश्य थे, क्या हम उनसे अनजान हो गये हैं? क्यों हमारी सोच ने होली, दिवाली, दशहरा जैसे पवित्र त्योहारों को एक विकृत रूप दे दिया है?

विजयादशमी के दिन हम बुराई के प्रतीक रावण का पुतला तो अवश्य जलाते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि यह पुतला प्रतीक है उन सब बुराइयों का जो हमारे समाज और हमारे मन के अन्दर व्याप्त हैं. जब तक ये बुराइयां हमारे अन्दर व्याप्त हैं, तब तक रावण समाज में इसी तरह आज़ादी से घूमता रहेगा. अगर हम इन बुराइयों को नष्ट करने के लिये अपने अंतस के राम को नहीं जगायेंगे तो केवल रावण का पुतला दहन करने मात्र से कुछ नहीं होगा. 

Friday 30 September 2011

दुर्गा पूजक देश में कन्या भ्रूण हत्या


आजकल देश के अधिकाँश भाग में नवरात्रि का उत्सव मनाया जा रहा है. आदिशक्ति दुर्गा का पूजा अर्चन सभी जगह अपनी अपनी परंपरानुसार किया जा रहा है. नौ दिन दुर्गा के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है और सभी जगह वातावरण भक्तिमय हो जाता है. उत्तर भारत में दुर्गा अष्ठमी को, जो नवरात्रों में आठवें दिन आती है, दुर्गा पूजा का समापन बहुत श्रद्धा पूर्वक किया जाता है और छोटी बालिकाओं को बुला कर उनको भोजन करा कर उनकी पूजा और चरण वंदन किया जाता है. यह कन्या या कंजक पूजन के नाम से भारत के अधिकाँश भागों में जाना जाता है.


नवरात्रि में दुर्गा पूजन आदिशक्ति के पूजन का प्रतीक है. भारतीय समाज में प्रारंभ से ही नारी को बहुत उच्च स्थान दिया गया है और उसे शक्ति और ममता का प्रतीक होने की वजह से पूज्यनीय माना गया है. लेकिन आज के समाज में जब अपने चारों ओर दृष्टि डालते हैं तो हम सोचने को मज़बूर हो जाते हैं कि क्या हम आज नारी को, चाहे वह माँ, बहन, पत्नी या पुत्री के रूप में हो, उनका उचित स्थान दे रहे हैं. क्या केवल वर्ष में दो बार नवरात्रि के अवसर पर नारी शक्ति का वंदन काफ़ी है? क्यों नहीं हम इसे अपनी जीवन पद्धिति और सामाजिक व्यवस्था का अंग बना पाते?

आज सुबह एक समाचार पढ़ कर कि देश में लडकियों की संख्या का अनुपात लड़कों की तुलना में निरंतर कम होता जा रहा है मन क्षुब्ध हो गया. जिस लडकी को हम नवरात्रों में घरों से बुलाकर बड़े प्यार से लाते हैं और उनका पूजन करते हैं, वे ही लडकियां नवरात्रों के बाद क्यों अवांक्षित हो जाती हैं? क्यों हम लडकी के जन्म पर खुश नहीं होते? क्यों प्रत्येक व्यक्ति परिवार के वारिस के रूप में एक पुत्र ही चाहता है? क्यों पुत्रियां हमारी पारिवारिक और सामजिक मूल्यों की वारिस नहीं बन सकतीं?

पुत्र की चाह में कुछ पारिवार जन्म से पहले ही बच्चे का भ्रूण परिक्षण कराते हैं और अगर कन्या का परिणाम आता है, तो उसका गर्भपात कराके जन्म लेने से पहले ही उसकी हत्या कराने से भी नहीं हिचकिचाते. यह सही है कि कुछ कारण हमारी सामाजिक दुर्व्यवस्था, गलत रीति रिवाज़, विकृत सोच आदि के कारण भी पैदा होते हैं. दहेज जैसी कुरीतियाँ, लडकियों के साथ दुर्व्यवहार और हमारे धार्मिक अन्धविश्वास भी इस सोच में आग में घी का काम करते हैं.  हमें अपनी सोच बदलनी होगी. शिक्षा के साथ आज इस विचारधारा में कुछ परिवर्तन आने लगे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है. इस कुरीति के कारण और परिणाम एक अलग विषद विवेचन के विषय हैं, लेकिन यहाँ मुख्य उद्देश्य इस कुप्रथा पर सभी का ध्यान आकृष्ट करना है.

भ्रूण जांच और उसके आधार पर कन्या भ्रूण की हत्या एक जघन्य कृत्य है, जिसको रोकने के लिये न केवल कठोर क़ानून की ज़रूरत है, बल्कि हमें लडकी के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी. अगर हम लडकियों को भी वही सुविधायें दें, वही शिक्षा दें, वही प्रोत्साहन दें जो एक पुत्र को देते हैं, तो कोई कारण नहीं कि हमारी पुत्रियां परिवार और समाज में वही स्थान प्राप्त न कर सकें, जिसकी हम पुत्रों से आशा करते हैं.

यह कितनी बड़ी विडम्बना और हमारा दोगलापन है कि जिस लडकी को हम नवरात्रों में देवी का प्रतिरूप मान कर उसकी पूजा करते हैं, उसी लडकी से हम जन्म लेने का अधिकार छीन लेते हैं. अगर हम दुर्गा माता की सच्ची पूजा अर्चन करना चाहते हैं तो हमें लडकियों को वही प्यार और सम्मान देना होगा जो हम उन्हें नवरात्रों में कन्या पूजन के समय देते हैं. अगर हम इस में चूक गऐ तो वह दिन दूर नहीं जब हम नवरात्रों में कन्या पूजन के लिये कन्या ढूँढते रह जायेंगे.